अगर netflix पर दो दिन पहले Animal नहीं देखी होती तो मुझे इस बार का फिल्मफेयर अवार्ड भी बाइअस्ड ही लगता।


अगर netflix पर दो दिन पहले Animal नहीं देखी होती तो मुझे इस बार का फिल्मफेयर अवार्ड भी बाइअस्ड ही लगता।


रणबीर कपूर को पहली बार संजय लीला भंसाली साहब के मोह के चलते ‘सवारियाँ’ में देखा था। तब मुझे लगा था कि एक और सिल्वर स्पून बॉय आया है जो क्यूट-क्यूट फेसेस बनाकर लड़कियों की ‘awww’ के सहारे हिट हो जायेगा।

सावरियाँ के बाद रणबीर ने वाकई में कुछ फिल्में ऐसी की भी जो टोटल मसाला और लफंगों वाली थीं। हालाँकि ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’ और ‘वेक अप सिड’ मुझे अच्छी लगी थी। पर रणबीर की इमेज वही चॉकलेट बॉय वाली सेट हो गई थी। 2009 में रॉकेट सिंह नामक ऑफ बीट फिल्म आई भी थी तो तब देख न पाया था।

पर 2011 में मैंने रॉकस्टार देखी और ऐसी देखी कि सोते-जागते मन में सिर्फ रॉकस्टार के गाने चलने लगे। कपूर परिवार का है, सिल्वर स्पून है, चॉको बॉय है आदि जितने भी स्टेरिओटाइप मन में बने थे, सब धूमिल होने लगे। लेकिन उसके बाद बर्फ़ी में मुझे इतनी ज़्यादा ‘notebook’ दिखाई दी कि कभी उस फिल्म को तरीफ़ी निगाह से देख ही नहीं पाया। हालाँकि दोनों फिल्मों में काफी अंतर था।

इसके बाद लड़कियाँ तो लड़कियाँ, लड़के भी ये जवानी है दिवानी के Bunny के लिए पगलाने लगे। जहाँ देखो वहाँ सिर्फ और सिर्फ YJHD की बात होने लगी। लेकिन जब मैंने वो फिल्म देखी तो मुँह से बस यही निकला कि रणबीर ने अपना बेस्ट Rockstar में दे दिया। अब इससे बेहतर ये शायद ही कुछ कर पायेगा।

पर मेरी सोच में मोच तब आई जब 2015 में मैंने फर्स्ट डे लास्ट शो – तमाशा – देखी। Bunny की ओवर acting से कोसों दूर, वेद के मल्टिपल शेड्स ने ऐसा मन मोह लिया कि रॉकस्टार का जॉर्डन एक पायदान नीचे खिसक गया और acting का एक नया वेद मिल गया।

पर फिर से रणबीर की बेतुकी फिल्में आनी शुरु हो गईं। ए दिल है मुश्किल, जग्गा जासूस, संजु, शमशेरा, ब्रह्मास्त्र आदि में कपूर खानदान का चश्मों-चिराग झेले नहीं झिला। फिर मेरे मन में यही बात आई कि इम्तियाज़ अली और तमाशा का वो कैरिक्टर वेद, उन्हीं में कुछ खास बात थी; वही रणबीर की ज़िंदगी का बेस्ट डायरेक्टर और बेस्ट रोल था।

लेकिन Animal देखने के बाद एक बार फिर मुझे रण‘विजय’ सिंह वेद से दो हाथ ऊपर लगा। फिल्म एंटी-फेमनिस्ट थी या एंटी-अन्डरवियर वो बहस का मुद्दा है; comments में निपट लेंगे पर रणबीर की acting स्किल्स पर कोई बहस, कोई शक-ओ-शुबह मुझे नहीं लगता है कि होगी।

एक खास सीन का ज़िक्र करता हूँ – विजय को हार्ट डोनर नहीं मिल रहा है, उसका taste sense जा चुका है, शरीर सूअर की तरह फूलता जा रहा है और वो घर में पड़ा-पड़ा पैरनॉइड हो चुका है, सनकी हो चुका है। ऐसे में पहले नौकरानी का उसे साइन लैंग्वेज में खाना देना और उसका रिएक्शन, दूसरा रश्मिका मँदाना और रणबीर के बीच की बहस और उस बहस में के बीच में बेटे का आ जाना और रणबीर का सडनली 180 डिग्री emotions चेंज करना... ये सीन मुझे इतना कॉनविंसिंग लगा कि मानो ये फिल्म नहीं, सच में किसी के घर की नोकझोंक टेलकैस्ट हो रही है।

एक फिल्म के नकली किरदार के दर्द को असली कर देने की कला रणबीर कपूर को बहुत अच्छे तरीके से आती है। पर अफसोस ये है कि ऐसी कलेजा चीर acting वह सेंट्रल कैरेक्टर होने पर ही कर पाते हैं।

ऑल्मोस्ट 16 साल के करिअर में करीब 27-28 फिल्मों में से अबतक केवल तीन फिल्में ही ऐसी थीं जो रणबीर की acting के लिए बार-बार देखी जा सकती थीं।

1 रॉकेट सिंह
2 रॉकस्टार
और
3 तमाशा...
अब उसमें चौथी फिल्म जुड़ गई है –
Animal

Written by Shehr 

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